Tuesday, March 24, 2009

Lakshya

जब मैंने अपना लक्ष्य जाना,
कागज़ के टुकड़े पर में उसे लिख डाला,
अब वो टुकडा रोज़ मैं देखता हूँ,
और एक कदम आगे बढाता हूँ,
कभी दायें और कभी बाएं भी जाता हूँ,
और एक कदम पीछे भी कभी आता हूँ,
पर एक नर्तक की तरह, मेरी आँखें एक टक, एक तरफ़ देखती हैं,
अपने लक्ष्य को।

चलते चलते कभी आँख के सामने बादल आते हैं, और कभी एक खूब सूरत नज़ारा,
ऐसे लम्हों में कभी शक उठता है ख़ुद पर, और कभी लगता है इसी मंज़र को मंजिल बना लूँ,
फिर वो कागज़ का टुकडा देखता हूँ,
माया के बादल आँख से हटाता हूँ,
अपने लक्ष्य को दूर से देखता हूँ,
कुछ पत्थर और हटाता हूँ,
और फिर अपनी राह बनाता हूँ,
एक कदम और बढाता हूँ.